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अ॒नु॒का॒मं त॑र्पयेथा॒मिन्द्रा॑वरुण रा॒य आ। ता वां॒ नेदि॑ष्ठमीमहे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anukāmaṁ tarpayethām indrāvaruṇa rāya ā | tā vāṁ nediṣṭham īmahe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒नु॒ऽका॒मम्। त॒र्प॒ये॒था॒म्। इन्द्रा॑वरुणा। रा॒यः। आ। ता। वा॒म्। नेदि॑ष्ठम्। ई॒म॒हे॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:17» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:32» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

इस प्रकार साधे हुए ये दोनों किस किसके हेतु होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जो (इन्द्रावरुण) अग्नि और जल (अनुकामम्) हर एक कार्य्य में (रायः) धनों को देकर (तर्प्पयेथाम्) तृप्ति करते हैं, (ता) उन (वाम्) दोनों को हम लोग (नेदिष्ठम्) अच्छी प्रकार अपने निकट जैसे हो, वैसे (ईमहे) प्राप्त करते हैं॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि जिस प्रकार अग्नि और जल के गुणों को जानकर क्रियाकुशलता में संयुक्त किये हुए ये दोनों बहुत उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त करें, उस युक्ति के साथ कार्य्यों में अच्छी प्रकार इनका प्रयोग करना चाहिये॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

एवं साधितावेतौ किंहेतुकौ भवत इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

याविमाविन्द्रावरुणावनुकामं रायो धनानि तर्पयेथां तर्पयेते ता तौ वां द्वावेतौ वयं नेदिष्ठमीमहे॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अनुकामम्) कामं काममनु (तर्पयेथाम्) तर्पयेते। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (इन्द्रावरुणा) अग्निजले। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशो वर्णव्यत्ययेन ह्रस्वत्वं च। (रायः) धनानि (आ) समन्तात् (ता) तौ। अत्रापि सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (वाम्) द्वावेतौ। अत्र व्यत्ययः। (नेदिष्ठम्) अतिशयेनान्तिकं समीपस्थम्। अत्र अन्तिकबाढयोर्नेदसाधौ। (अष्टा०५.३.६३) अनेनान्तिकशब्दस्य नेदादेशः। (ईमहे) जानीमः प्राप्नुमः। ईङ् गतौ इत्यस्माद् बहुलं छन्दसि इति शपो लुकि श्यनभावः॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरेवं यो मित्रावरुणयोर्गुणान् विदित्वा क्रियायां संयोजितौ बहूनि सुखानि प्रापयतस्तौ युक्त्या कार्य्येषु सम्प्रयोजनीया इति॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे अग्नी व जलाचे गुण जाणून क्रियेमध्ये संयुक्त केल्यास ते दोन्ही अत्यंत उत्तम सुख देतात, तसे माणसांनी युक्तीने कार्यामध्ये त्यांचा प्रयोग केला पाहिजे. ॥ ३ ॥